"दिमाग़ी पागलपन एक बीमारी है". प्रतिदिन हम सैकड़ों सवाल पूछते हैं. हर परम्परा, चलन, रूढ़ीगत मान्यता की खोज-बीन करके उसे आधुनिकता के मापदंडों पर परखते हैं. फिर पागलपन के साथ इस तरह का भेद भाव? मानवीय संवेदनायें बदल रही हैं. हम सब तनाव-ग्रस्त हैं. अकेलेपन में न जाने क्या ढूँढ रहे हैं. बड़ी अपेक्षायें हैं इस एकांत से. आशा है ये हमें अपने आप से मिलवाएगा. पर उनका क्या जिन्हें ऐसी स्थिति सिर्फ़ अंधकार की ओर धकेलती है? ये एकांत जब खाने को दौड़ने लगे, तो कौन जवाबदेह होना चाहिए? इतनी गहराई में जाने से तो अच्छा है कि आँखें मूंदकर मान लिया जाए- "दिमाग़ी पागलपन एक बीमारी है".
सच में, लिखने वाली ने क्या लिखा है...दिल आखिर तू क्यों रोता है? दुनिया में यु ही होता है...
ReplyDelete:-) Kya kahein...
Delete